Uttarakhand Nanda Devi Raj jaat yatra : उत्तराखंड की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का प्रतीक नंदा देवी राजजात यात्रा को विश्वस्तरीय स्वरूप देने के लिए तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2026 में होने वाली इस यात्रा के प्रबंधन और व्यवस्थाओं की समीक्षा के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई। उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिए कि यात्रा को सुचारु और सुरक्षित बनाने के लिए समग्र कार्य योजना तैयार कर तुरंत अमल शुरू किया जाए।
क्या है नंदा राजजात यात्रा?
उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में देवी नंदा की विशेष मान्यता है। हर 12 साल में आयोजित होने वाली नंदा राजजात यात्रा को ‘हिमालयी कुंभ’ भी कहा जाता है। यह यात्रा चमोली जिले के कुरुड़ गांव से शुरू होकर 280 किमी के कठिन पैदल मार्ग से होते हुए हेमकुंड और होमकुंड तक जाती है। मां नंदा, जिन्हें गढ़वाल और कुमाऊं में राजराजेश्वरी, शिवा, सुनंदा, शुभा नंदा, और नंदिनी के रूप में पूजा जाता है, उत्तराखंडवासियों की इष्टदेवी हैं।
मान्यता है कि यह यात्रा मां नंदा को उनके मायके (पट्टी चांदपुर और श्री गुरु शीतला) से ससुराल (बान्धाण क्षेत्र, कैलाश) भेजने की परंपरा का हिस्सा है। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है, और यह यात्रा उनकी ससुराल वापसी का प्रतीक है। किवदंती के अनुसार, मां नंदा एक बार अपने मायके आई थीं और 12 वर्षों तक ससुराल नहीं लौटीं। इसके बाद, उनके ससुराल भेजने की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी हर 12 साल में इस भव्य यात्रा के रूप में मनाई जाती है।
यात्रा मार्ग में उचित व्यवस्थाओं पर जोर
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने स्पष्ट किया कि नंदा देवी राजजात 2026 को केवल धार्मिक आयोजन तक सीमित नहीं रखा जाएगा, बल्कि इसे उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान के रूप में वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत किया जाएगा। उन्होंने कहा, “नंदा देवी राजजात उत्तराखंड की संस्कृति, परंपरा, और लोक आस्था का जीवंत उदाहरण है। इसे विश्वस्तरीय बनाने के लिए सभी विभागों को समन्वय के साथ काम करना होगा।”
सीएम धामी ने इन व्यवस्थाओं पर जोर दिया:
- यात्रा मार्ग: मार्गों की मरम्मत और बुनियादी ढांचे का विकास।
- स्वास्थ्य सेवाएं: यात्रियों के लिए मेडिकल कैंप और आपातकालीन चिकित्सा सुविधाएं।
- सुरक्षा: पुलिस और आपदा प्रबंधन टीमें तैनात की जाएंगी।
- पेयजल और स्वच्छता: स्वच्छ पानी और साफ-सफाई की व्यवस्था।
- संचार: यात्रा मार्ग पर बेहतर संचार सुविधाएं।
- श्रद्धालु सुविधाएं: विश्राम स्थल, भोजन, और अस्थायी आश्रय।
उन्होंने पर्यटन, संस्कृति, पुलिस, स्वास्थ्य, और लोक निर्माण विभाग को समयबद्ध तरीके से कार्य योजना तैयार करने और उसे लागू करने के निर्देश दिए।
नंदा देवी राजजात यात्रा का इतिहास
कथाओं के अनुसार, जब मां पार्वती और भगवान शिव कैलाश की ओर जा रहे थे, तब मां नंदा को प्यास लगी और वे बान्धाणि गांव पहुंचीं। वहां के चौकीदार जमन सिंह जादोडा ने उनका आदर-सत्कार किया और पानी पिलाया। मां नंदा ने उन्हें वचन दिया कि वे कैलाश जाते समय फिर उनके घर आएंगी। इस परंपरा को निभाते हुए, आज भी नंदा देवी की डोली इडा बान्धाणि में जादौड़ा वंशजों के घर रात्रि विश्राम करती है।
एक अन्य कथा के अनुसार, एक लड़की को उसके मायके के धार्मिक अनुष्ठान में आमंत्रित नहीं किया गया, फिर भी वह ससुराल से मायके गई। रास्ते में एक भैंस के हमले में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मायके और ससुराल में अजीब घटनाएं होने लगीं। सपने में उस लड़की ने अपनी कहानी बताई, जिसके बाद उसे मां नंदा के रूप में पूजा जाने लगा। आज मां नंदा को बेटी, बहन, और बहू के रूप में पूजा जाता है।
सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
नंदा देवी राजजात गढ़वाल और कुमाऊं की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। इस यात्रा में नौटियाल, कुंवर, और अन्य समुदायों के लोग छंतोलियां और डोलियां लेकर शामिल होते हैं। ढोल-दमाऊं, पौराणिक वाद्य यंत्र, और झौंड़ा गीत यात्रा को जीवंत बनाते हैं। यह यात्रा मां नंदा के प्रति उत्तराखंडवासियों की अटूट आस्था को दर्शाती है। नंदा देवी राजजात की शुरुआत का श्रेय गढ़वाल के राजा शालीपाल और कनक पाल को दिया जाता है।
यात्रा के मुख्य पड़ाव
नंदा देवी राजजात नौटी गांव से शुरू होकर होमकुंड तक जाती है। इस यात्रा में 240 किलोमीटर की पैदल यात्रा शामिल है, जिसमें कई महत्वपूर्ण पड़ाव हैं:
ईडा बान्धाणि: यात्रा शुरू होने पर मां नंदा का भव्य स्वागत।
नौटी: रात्रि विश्राम और मां नंदा का जागरण।
कांसुवा: भराड़ी देवी और कैलापीर देवता के मंदिरों में पूजा।
सेम: चांदपुर गढ़ी और महादेव घाट मंदिर के दर्शन।
कोटी: सितोलीधार में विशेष पूजा।
भगोती: मायके का अंतिम पड़ाव।
कुलसारी: ससुराल का पहला पड़ाव, अमावस्या के दिन पहुंच।
चेपड्यूं: थराली में भव्य मेला और देवराड़ा में पूजा।
नंदकेशरी: कुरुड से डोली शामिल।
फल्दियागांव: भेकलझाड़ी में विशेष पूजा।
मुंदोली: झौंड़ा गीत और सामूहिक पूजा।
वाण: घौंसिंह और काली दानू के मंदिर।
गैरोलीपातल: पहला निर्जन पड़ाव।
वैदनी: महाकाली के स्नान की कथा से जुड़ा।
पातरनचौंणियां: पूजा और विश्राम।
शिला समुद्र: कैलवाविनायक में गणेश पूजा।
चंदनियाघाट: होमकुंड के बाद रात्रि विश्राम।
सुतोल: धौसिंह मंदिर के दर्शन।
घाट: नंदाकिनी नदी के किनारे पूजा।
नौटी (वापसी): कर्णप्रयाग और नंदप्रयाग से सड़क मार्ग।
चौसिंगा खाडू यात्रा का विशेष प्रतीक
चौसिंगा खाडू (चार सींग वाला काला भेड़) इस यात्रा का विशेष प्रतीक है, जिसे मां नंदा का सहायक माना जाता है। मान्यता है कि यह भेड़ हर 12 साल में जन्म लेती है और यात्रा में मां नंदा के उपहार को होमकुंड तक ले जाती है। इसके जन्म के साथ ही चमत्कारिक घटनाएं शुरू हो जाती हैं, जैसे शेरों का आना, जो तब तक नहीं रुकता जब तक खाडू को राजा को अर्पित करने की मनौती न मानी जाए।


शंकर दत्त पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और पिछले चार दशक से मीडिया की दुनिया में सक्रिय हैं। Uncut Times के साथ वरिष्ठ सहयोगी के रूप से जुड़े हैं। उत्तराखंड की पत्रकारिता में जीवन का बड़ा हिस्सा बिताया है। कुमाऊं के इतिहास की अच्छी जानकारी रखते हैं। दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक और शोधपरक लेख प्रकाशित। लिखने-पढ़ने और घूमने में रुचि। इनसे SDPandey@uncuttimes.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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