देहरादून/नैनीताल। उत्तराखंड का प्रमुख लोक पर्व ‘हरेला’ आज पूरे राज्य में पारंपरिक उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है। हरेला को हरियाली, समृद्धि और पर्यावरण के प्रति आभार प्रकट करने के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर ग्रामीणों से लेकर शहरी क्षेत्रों तक लोग घर-घर में हरेला चढ़ा रहे हैं, बुजुर्ग आशीर्वाद दे रहे हैं, और पौधारोपण कर प्रकृति के संरक्षण का संकल्प ले रहे हैं। आइए, हरेले के महत्व, परंपराओं, और इसकी सांस्कृतिक गहराई को विस्तार से समझें।
क्या है हरेला का अर्थ?
हरेला शब्द ‘हरियाली’ से लिया गया है, जो प्रकृति में जीवन का संचार और नवजीवन का प्रतीक है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में यह पर्व सावन मास के पहले दिन (एक गते) मनाया जाता है, जो वर्षा ऋतु के आगमन और खेती के नए चक्र की शुरुआत का उत्सव है। धार्मिक दृष्टि से, हरेला को भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन शिव और पार्वती का मिलन हुआ था, जिसके कारण यह पर्व वैवाहिक सुख, परिवार की समृद्धि, और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड में, जहां खेती और प्रकृति जीवन का आधार हैं, हरेला कृषि समृद्धि और पर्यावरण संतुलन का प्रतीक है। यह पर्व लोगों को पौधरोपण और प्रकृति संरक्षण के लिए प्रेरित करता है।
हरेला प्रकृति पूजा का एक अनूठा उदाहरण है, जो माता पृथ्वी को हरियाली से भर देने के लिए धन्यवाद देता है।
–डॉ. प्रमोद जोशी, प्रसिद्ध कथावाचक
हरेला बोने और मनाने की परंपरा
हरेला पर्व की शुरुआत 9 दिन पहले होती है, जब लोग अपने घरों में हरेला बोते हैं।
हरेला बोने की विधि
हरेला 10 दिन पहले बोया जाता है। तिमिले/मालू के पत्तों के दोने, बांस की टोकरी या मिट्टी के बर्तन में मिट्टी भरकर बोआई की जाती है। इसमें जौ, मक्का, धान, गेहूं, उड़द, गहत और चना जैसे पांच या सात अनाज डाले जाते हैं। इन्हें छाया में रखा जाता है और रोज थोड़ा पानी दिया जाता है। अनार की लकड़ी से गुड़ाई की जाती है।
हरेला चढ़ाने की परंपरा
10वें दिन, यानी पर्व के दिन हरेला काटा जाता है। कटे हुए हरेले के तिनड़ों को सबसे पहले घर के मंदिर, ईष्ट देवता, ग्राम देवता, और स्थानीय देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है। इसके बाद, घर के बड़े-बुजुर्ग परिवार के सभी सदस्यों के सिर या कानों पर हरेला रखते हैं और लोक गीतों के साथ आशीर्वाद देते हैं। हरेला को घर की चौखट पर भी रखा जाता है, ताकि समृद्धि और हरियाली बनी रहे। प्रसाद के रूप में हरेला (पैंड़ा) परिवार के सदस्यों में बांटा जाता है। दूर रहने वाले परिजनों को हरेला के तिनके चिट्ठी के साथ आशीर्वाद के रूप में भेजे जाते हैं।
हरेले पर पारंपरिक लोक आशीर्वाद
हरेला पर्व के दौरान गाए जाने वाले लोक गीत इसकी आत्मा हैं। यह गीत लंबी उम्र, समृद्धि, बुद्धिमत्ता और शक्ति का आशीर्वाद देने के लिए गाया जाता है।
जी रया जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया। दुब जस फैल जाया, बेरी जस फली जाया। हिमाल में ह्युं छन तक, गंगा ज्यूं में पाणी छन तक, यो दिन और यो मास भेंटने रया। अकास जस उच्च है जे, धरती जस चकोव है जे। स्याव जसि बुद्धि है जो, स्यू जस तराण है जो। जी राये जागी रया। यो दिन यो बार भेंटने रया।
इस गीत का अर्थ है कि व्यक्ति लंबी आयु पाए, दूब की तरह समृद्धि बढ़े, बेरी की तरह फले-फूले, और हिमालय में बर्फ व गंगा में पानी की तरह स्थायी सुख प्राप्त करे।
पकवान और उत्सव
हरेला के दिन घरों में पूरी, खीर, पूए, बड़े, और अन्य पारंपरिक उत्तराखंडी व्यंजन बनाए जाते हैं। परिवार के सभी सदस्य एक साथ भोजन करते हैं, और खुशहाली व एकता का उत्सव मनाया जाता है।
हरेले का पर्यावरणीय महत्व
हरेला पर्व प्रकृति पूजा का एक अनूठा उदाहरण है। यह पर्व न केवल खेती-बाड़ी के महत्व को रेखांकित करता है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए भी प्रेरित करता है। हरेला सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि यह प्रकृति से जुड़ाव, पर्यावरण संरक्षण और पौधारोपण को प्रोत्साहित करने वाला लोकपर्व है। आज के दिन सरकारी संस्थाएं, स्कूल-कॉलेज, स्वयंसेवी संगठन और आमजन मिलकर वृक्षारोपण करते हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी इस अवसर पर लोगों से अपील की कि वे इस हरेला पर्व पर अधिकाधिक पौधे लगाएं और उत्तराखंड को ग्रीन स्टेट बनाने में योगदान दें। हरेला 2025 के अवसर पर उत्तराखंड में 16 जुलाई को कई क्षेत्रों में स्कूलों और बैंकों में अवकाश घोषित किया गया है।
“हरेला हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने की सीख देता है। यह पर्व बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करता है और हमें याद दिलाता है कि हमारी समृद्धि प्रकृति पर निर्भर है।”
-डॉ. अनिल जोशी, पर्यावरणविद
उत्तराखंडियों से अपील
पारंपरिक तरीके अपनाएं। सावन मास के अनुरूप सात्विक भोजन जैसे खीर, पूरी, और हलवा बनाएं और परिवार के साथ बांटें। हरेला गीत गाकर परिवार के साथ उत्सव को और जीवंत बनाएं। प्लास्टिक मुक्त और स्वच्छता के प्रति जागरूक रहें। हरेला बोने के लिए मिट्टी के बर्तन या पत्तों के दोने का उपयोग करें और प्लास्टिक से बचें। इस अवसर पर स्थानीय प्रजातियों के पौधे लगाएं।
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शंकर दत्त पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और पिछले चार दशक से मीडिया की दुनिया में सक्रिय हैं। Uncut Times के साथ वरिष्ठ सहयोगी के रूप से जुड़े हैं। उत्तराखंड की पत्रकारिता में जीवन का बड़ा हिस्सा बिताया है। कुमाऊं के इतिहास की अच्छी जानकारी रखते हैं। दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक और शोधपरक लेख प्रकाशित। लिखने-पढ़ने और घूमने में रुचि। इनसे SDPandey@uncuttimes.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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