अल्मोड़ा : उत्तराखंड की लोक-संस्कृति, कुमाऊं के पर्व और उत्सवों को समर्पित एक विशेष व्याख्यान बुधवार को उत्तराखंड सेवा निधि के संयोजन में आयोजित किया गया। इस अवसर पर ‘कुमाऊं अंचल के पर्व और उत्सव: सामाजिक संदर्भ में उनकी विशेषताएं’ विषय पर पर्यावरणीय विषयों के लेखक और शोधकर्ता चंद्र शेखर तिवारी ने विचार साझा किए। कार्यक्रम में क्षेत्र के साहित्यकारों, रंगकर्मियों, पत्रकारों, शिक्षकों और फोटोग्राफरों सहित अनेक सांस्कृतिक हस्तियों की भागीदारी रही।
कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत
उत्तराखंड सेवा निधि, अल्मोड़ा द्वारा आयोजित इस व्याख्यान में कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर को समझने और उसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत में सेवानिधि के निदेशक पद्मश्री डॉ. ललित पांडे ने चंद्र शेखर तिवारी का स्वागत किया। कमल जोशी ने तिवारी के जीवनवृत्त और उनके शोध कार्यों पर प्रकाश डाला। अपने व्याख्यान में चंद्र शेखर तिवारी ने कहा कि कुमाऊं अंचल के त्योहार केवल धार्मिक आयोजन नहीं बल्कि सामाजिक एकता, प्रकृति प्रेम और लोकसंस्कृति के जीवंत प्रतीक हैं। उन्होंने कहा कि पर्वों में गीत, संगीत, नृत्य और सामूहिक सहभागिता का अद्भुत मेल देखने को मिलता है, जो क्षेत्रीय सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है।
पर्व और उत्सव में अंतर
शोधकर्ता चंद्र शेखर तिवारी ने पर्व और उत्सव के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा, पर्व धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के अवसर होते हैं, जो निश्चित तिथियों पर मनाए जाते हैं, जैसे होली, हरेला, और घी संक्रांति। इसी तरह, उत्सव सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, जो समुदाय की खुशी और एकता को बढ़ाते हैं, जैसे रामलीला और दशहरा।
कुमाऊं के पर्व और उत्सव
चंद्र शेखर तिवारी ने अपने संबोधन में कुमाऊं अंचल के पर्व-त्योहारों की सांस्कृतिक, सामाजिक, और पर्यावरणीय महत्ता पर गहन प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि उत्तराखंड के पर्व केवल उत्सव नहीं, प्रकृति से जुड़ाव और उसकी रक्षा की चेतना भी हैं।
1. होली
विशेषता: कुमाऊं की होली पौष मास के पहले रविवार से शुरू होकर रामनवमी तक चलती है। यह ब्रज और अवधी शैली से प्रभावित है, लेकिन इसमें स्थानीय कुमाऊंनी मिट्टी की खुशबू साफ झलकती है।
सामाजिक संदर्भ: होली सामाजिक एकता और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। सतराली की होली जैसे आयोजन समुदाय को जोड़ते हैं। सतराली की होली जैसी विशिष्ट परंपराएं क्षेत्र की पहचान हैं। होली के गीत रागों की जटिलताओं से मुक्त होते हैं, जिससे आम लोग भी आसानी से भाग ले सकते हैं।
2. हरेला
विशेषता: हरेला कुमाऊं का प्रमुख कृषि पर्व है, जो श्रावण मास में मनाया जाता है। इसमें सात अनाज (बिरुड़) बोए जाते हैं, जो समृद्धि और प्रकृति के प्रति आभार का प्रतीक हैं।
सामाजिक संदर्भ: यह पर्व पर्यावरण संरक्षण और कृषि समुदाय की एकता को बढ़ावा देता है।
3. फूलदेई
विशेषता: चैत्र मास में मनाया जाने वाला फूलदेई बच्चों का पर्व है, जिसमें वे घरों की देहरी पर फूल बिखेरते हैं और आशीर्वाद मांगते हैं।
सामाजिक संदर्भ: यह पर्व प्रकृति के प्रति प्रेम और नई पीढ़ी की सहभागिता को प्रोत्साहित करता है।
4. सातू-आठूं (गौरा-महेश्वर पूजा)
विशेषता: भाद्रपद मास में मनाया जाने वाला यह पर्व गौरा (पार्वती) और महेश्वर (शिव) की पूजा को समर्पित है। महिलाएं पंच अनाज (बिरुड़) भिगोकर और धोकर पूजा करती हैं।
सामाजिक संदर्भ: यह पर्व महिलाओं की आध्यात्मिकता और सामुदायिक एकता को दर्शाता है।
5. घी संक्रांति
विशेषता: भाद्रपद मास में मनाया जाने वाला यह पर्व कृषि समृद्धि और पशुधन के प्रति आभार व्यक्त करता है। इस दिन घी और पौष्टिक भोजन खाने की परंपरा है।
सामाजिक संदर्भ: यह पर्व कृषक समुदाय की मेहनत और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को दर्शाता है।
6. गंगा दशहरा
विशेषता: ज्येष्ठ मास में मनाया जाने वाला यह पर्व नदियों के महत्व को रेखांकित करता है। तिवारी ने कहा कि कुमाऊं में हर नदी को गंगा माना जाता है।
सामाजिक संदर्भ: यह पर्व जल संरक्षण और प्रकृति के प्रति सम्मान की भावना को बढ़ाता है।
7. कुमाऊंनी रामलीला
विशेषता: 1860 से शुरू हुई कुमाऊं की रामलीला गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। यह रामचरितमानस पर आधारित है और इसमें पाश्र्व गायन और हाव-भाव का विशेष महत्व है।
सामाजिक संदर्भ: रामलीला सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का माध्यम है। अल्मोड़ा, नैनीताल, और हल्द्वानी में इसका भव्य मंचन होता है।
8. दशहरा
विशेषता: अल्मोड़ा का दशहरा अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। इसमें रावण दहन के साथ स्थानीय परंपराएं शामिल होती हैं।
सामाजिक संदर्भ: यह उत्सव अच्छाई की जीत और समुदाय की एकता का प्रतीक है। अल्मोड़ा का दशहरा को भी शिल्प, रचनात्मकता और जनउत्साह का अद्वितीय उदाहरण है।
नई पीढ़ी में पर्वों के प्रति रुचि कैसे जगाएं?
प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान जब यह पूछा गया कि नई पीढ़ी में इन पर्वों के प्रति लगाव कैसे बढ़ाया जाए, तो तिवारी ने स्पष्ट कहा कि “शुरुआत हर घर से होनी चाहिए। जब तक परिवार पर्वों के महत्व को नहीं समझाएंगे, अगली पीढ़ी उनसे नहीं जुड़ पाएगी।” इस अवसर पर प्रख्यात फोटोग्राफर थ्रीष कपूर, वरिष्ठ रंगकर्मी और पत्रकार नवीन बिष्ट, डॉ. जेसी दुर्गापाल, प्रो. एसएस पथनी, प्रो. शेखर चंद्र जोशी, आनंद सिंह बगड़वाल, लता पांडे, शंकर दत्त पांडे, अशोक पांडे, डीके कांडपाल, जगदीश जोशी, किरण चंद्र जोशी, जगत मोहन जोशी, मृदुला जोशी, भारत रत्न पांडेय, मनोहर सिंह नेगी, सीएस बनकोटी, डीके पांडे, माया पंत, ध्रुव टम्टा, डॉ. महेंद्र सिंह मिराल, पूरन चंद्र जोशी, अनुराधा पांडे, रमा जोशी, और डॉ. भूपेंद्र सिंह वल्दिया जैसे गणमान्य लोग उपस्थित थे।


शंकर दत्त पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और पिछले चार दशक से मीडिया की दुनिया में सक्रिय हैं। Uncut Times के साथ वरिष्ठ सहयोगी के रूप से जुड़े हैं। उत्तराखंड की पत्रकारिता में जीवन का बड़ा हिस्सा बिताया है। कुमाऊं के इतिहास की अच्छी जानकारी रखते हैं। दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक और शोधपरक लेख प्रकाशित। लिखने-पढ़ने और घूमने में रुचि। इनसे SDPandey@uncuttimes.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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